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आईना (कहानी)

"बेटा सुनील, मैंने पूरे जीवन की कमाई नेहा की पढ़ाई में लगा दी, मेरे पास दहेज में देने के लिए कुछ भी नहीं है।" शिवनारायण जी ने कहा।

"अरे नहीं अंकल! मुझे दहेज में कुछ नहीं चाहिए। बस पढ़ी-लिखी, संस्कारी लड़की चाहिए, जो जीवन के हर हालात में साथ निभा सकें।" शिवनारायण जी को टोकते हुए सुनील ने कहना जारी रखा... "नेहा ने तो अंग्रेजी में पीएच॰डी॰ किया है। पर मैं बस बी॰एस॰सी॰ किया हूँ और सहायक केमिस्ट की नौकरी करता हूँ। संपत्ति के नाम पर मेरे पास फैक्ट्री से मिला, फैक्ट्री का ये आवास है!"

"सुनील बेटा, संपत्ति की कोई बात नहीं है। हम नेहा के लिए ऐसा लड़का देख रहें जो ईमानदारी से दो रोटी कमा सकें; और तो और बेटा, नेहा ने भी पीएच॰डी॰ किया है। ज़रूरत पड़ने पर वह भी जॉब कर सकती है।" - शिवनारायण ने कहा।

शिवनारायण को गंभीरता से सुनकर सुनील ने कहा, "ठीक है पर, शादी के लिए नेहा की मर्ज़ी भी पूछ लीजिएगा। क्या पीएच॰डी॰ की हुई नेहा बी॰एस॰सी॰ पास लड़के के साथ शादी करना चाहेगी? उसे कोई हिचक तो नहीं होगी? ज़रूरत के वक़्त शहर में पली-बढ़ी नेहा गाँव में मेरे साथ रह पाएगी?"

"मेरी बेटी हर हालात में ख़ुश रह सकती है बशर्ते उसे प्यार और सम्मान देने वाला पति मिले। बेटा तुम्हें दहेज नहीं, संस्कारयुक्त जीवनसाथी चाहिए, पर यदि तुम्हारे पिता रामपाल जी की कोई माँग हो तो पूछ के बता देना। यदि हमारे सामर्थ्य में रहा तो हम शादी की बात आगे बढ़ाएँगे।" - शिवनारायण ने लंबी साँस लेते हुए अपनी बात ख़त्म की।

इतने पर सुनील ने हाथ जोड़ कहा, "अरे नहीं...! पिता जी बड़े सिद्धांतवादी हैं। मैं उन्हें जानता हूँ, वह दहेज शब्द का नाम भी नहीं लेंगे। आपको ऐसा कुछ लगे तो बताएँ, मै पिता जी से बात करूँगा, नेहा की शिक्षा इत्यादि को देख पिता जी मान जाएँगे। लेकिन समय निकालकर आप एक बार रमेश चाचा (जिनके माध्यम से शिवनारायण और सुनील की पहचान हुई) के साथ बलिया जाकर मेरा पुश्तैनी गाँव-घर देख आइए और पिता जी से मुलाक़ात भी कर लीजिए।"

इतने में शिवनारायण ने कहा, "हाँ बेटा, मैं भी सोच रहा कि इसी रविवार बेटे के साथ बलिया चला जाऊँ और रिश्ता पक्का कर आऊँ।"

"ठीक है अंकल, जैसा भी निर्णय हो आप रमेश चाचा या मुझे बता दीजिएगा।" - सुनील ने जवाब दिया।

"ठीक है बेटा अब हम चलते है, आगे फोन पर हमारी बात होती रहेगी।" इतना कहते ही शिवनारायण जी अपने कार की तरफ़ चल पड़े।

अगले बुधवार को सुनील को शिवनारायण जी का फोन आया, "बेटा सुनील, मैं शिवनारायण बोल रहा हूँ, नेहा का पापा।"

"जी अंकल नमस्ते, कहिए कैसे हैं और कैसा लगा आपको मेरा गाँव-घर? पिता जी से क्या बात हुई आपकी?" - उत्सुकता से सुनील ने पूछा।

उधर से शिवनारायण ने कहा "बेटा, तुमने जैसा बताया था, वैसा पाया हमने सबकुछ। आपके पिता जी भी काफ़ी सज्जन व्यक्ति लगे और ख़ूब आदर सत्कार किया उन्होंने हमारा। पर सुनील...!"

उधर से आवाज़ न आता देख सुनील ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, "पर क्या अंकल? जो भी हो आप नि:संकोच कहिए।"

"कुछ नहीं बेटा, सब कुछ पसंद आया हमें, लेकिन नेहा के मामा को गाँव वाला आपका घर सही नही लगा, पुराने ज़माने के खपरैले जर्जर अवस्था के मकान... और तो और नेहा के मामा कह रहे थे कि शहर में पली-बढ़ी नेहा वहाँ एक दिन भी नहीं रह पाएगी।"

शिवनारायण के इतना कहते ही रमेश बोल पड़ा, "अंकल, ये सब मैं पहले ही बता चुका था। फिर अब इन बातों को लेकर...!"

"हाँ बेटा, तुमने सब बताया था पर नेहा के मामा को तुम्हारे गाँव का मकान पसंद ना होने के कारण हम रिश्ता नहीं कर सकते।" - शिवनारायण जी ने कहा।

"कोई बात नहीं अंकल, नेहा के मामा को लगता है कि शहर में पली-बढ़ी नेहा एक दिन भी वहाँ नहीं रह सकती तो मैं भी जीवनसाथी के रूप में नेहा का चयन करना पसंद नहीं करूँगा। क्योंकि राजा के घर में पली-बढ़ी मैया सीता ज़रूरत आने पर अपने पति के साथ चौदह साल वनवास में गुज़ार सकती है, पर नेहा जीवनसंगिनी के रूप में मेरे नए मकान बनने तक साल की गिनी-चुनी छुट्टियाँ मेरे साथ गाँव के पुराने मकान में नही गुज़ार सकती!" सुनील ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, "अंकल, मैंने अपने पिता के स्वभाव, सिद्धांतों को भली-भांति जानते हुए आपको भरोसा दिलाया था कि मेरे पिता दहेज की माँग कभी नहीं करेंगे; लेकिन शायद आपने नेहा को उसके मामा के नज़रों से देखे बिना ही मुझसे कह दिया था कि नेहा को सम्मान और प्यार मिले तो वह हर हालात में ख़ुश रह लेगी।"

उधर दूसरी तरफ़ चुपचाप फोन काटते हुए शिवनारायण जी को ऐसा अहसास हो रहा था कि सुनील उनके कहें शब्दों को नहीं कह रहा बल्कि उनके कहें हुए शब्दों से उन्हें ही आईना दिखा रहा है।


रचनाकार : अंकुर सिंह
लेखन तिथि : 8 अक्टूबर, 2021
            

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