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तपी छंद

व्यथा धरा की
संजय राजभर 'समित'
चीख़ रही धरती। कौन सुने विनती।। दोहन शाश्वत है। जीवन आफ़त है।। बाढ़ कभी बरपा। लाँछन ही पनपा।। मौन रहूँ कितना!

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