कोरोना / देशभक्ति / सुविचार / प्रेम / प्रेरक / माँ / स्त्री / जीवन




नज़्म

अख़बार - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
सारा दिन मैं ख़ून में लत-पत रहता हूँ सारे दिन में सूख सूख के काला पड़ जाता है ख़ून पपड़ी सी जम जाती है खुरच खुरच के
आदत - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
साँस लेना भी कैसी आदत है जिए जाना भी क्या रिवायत है कोई आहट नहीं बदन में कहीं कोई साया नहीं है आँखों में पाँव बेहि
किताबें - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं जो शामें उन की स
फ़ज़ा - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
फ़ज़ा ये बूढ़ी लगती है पुराना लगता है मकाँ समुंदरों के पानियों से नील अब उतर चुका हवा के झोंके छूते हैं तो खुरदु
ग़ालिब - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे गुड़गुड़ाती हुई
एक और रात - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
रात चुप-चाप दबे पाँव चले जाती है रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं काँच का नीला सा गुम्बद है उड़ा जाता है ख़ाल
घुटन - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
जी में आता है कि इस कान से सूराख़ करूँ खींच कर दूसरी जानिब से निकालूँ उस को सारी की सारी निचोड़ूँ ये रगें, साफ़ करूँ
पेंटिंग - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
रात कल गहरी नींद में थी जब एक ताज़ा सफ़ेद कैनवस पर आतिशीं, लाल सुर्ख़ रंगों से मैं ने रौशन किया था इक सूरज... सुब्ह
रात - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
मिरी दहलीज़ पर बैठी हुई ज़ानू पे सर रक्खे ये शब अफ़्सोस करने आई है कि मेरे घर पे आज ही जो मर गया है दिन वो दिन हम-ज़ा
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा घोड़ा पहुँचा
एक ख़्वाब - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
एक ही ख़्वाब कई बार यूँही देखा मैंने तू ने साड़ी में उड़स ली हैं मिरी चाबियाँ घर की और चली आई है बस यूँही मिरा हाथ पक
ख़ुदा - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने! काले घर में सूरज रख के तुम ने शायद सोचा था मेरे सब मोहरे पिट जाएँगे मै
डाइरी - गुलज़ार
  सृजन तिथि :
न जाने किस की ये डाइरी है न नाम है, न पता है कोई: ''हर एक करवट मैं याद करता हूँ तुम को लेकिन ये करवटें लेते रात दिन यूँ
किसान - कैफ़ी आज़मी
  सृजन तिथि :
चीर के साल में दो बार ज़मीं का सीना दफ़्न हो जाता हूँ गुदगुदाते हैं जो सूरज के सुनहरे नाख़ुन फिर निकल आता हूँ अब न
गीत के जितने कफ़न हैं - कुँअर बेचैन
  सृजन तिथि :
ज़िंदगी की लाश ढकने के लिए गीत के जितने कफ़न हैं हैं बहुत छोटे रात की प्रतिमा सुधाकर ने छूई पीर ये फिर से सिता
आधी रात - फ़िराक़ गोरखपुरी
  सृजन तिथि :
1 सियाह पेड़ हैं अब आप अपनी परछाईं ज़मीं से ता-मह-ओ-अंजुम सुकूत के मीनार जिधर निगाह करें इक अथाह गुम-शुदगी इक एक कर
कोई बात दबी हैं - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : अक्टूबर, 2020
तेरे नूरानी बदन पे कसक कोई सजी हैं, तुझसे मिलकर कह दूँ होठों में कोई बात दबी हैं। मिन्नतें तमाम अज़ीज़ों की मेरे स
बेमौल माज़ी - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : नवम्बर, 2020
शामों की सुर्ख़ फ़ज़ाओं में तुझसे मुख़ातिब हुआ कभी, माहताब ने भी तिरे दूधिया अक्स को उतरने दिया कभी। शबे-पहर तन्हाई ने
तू सज-धज के नज़र आती हैं - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : नवम्बर, 2020
शफ़क़ की पैरहन ओढ़ें शाम जब मिरे मस्कन आती हैं, सुर्ख़ मनाज़िर में तू दुल्हन बनी सज-धज के नज़र आती हैं। तन्हा रात हैं, शोख़
पत्ता गोभी - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : अक्टूबर, 2020
मिरे दर पर हुजूम में, साथी कोई पुराना आया हैं। आज़ीज़ों की बज़्म में, क़त्ल का फ़रमान आया हैं। मोहब्बत के खेल में, जाम त
अपनी भी दीवाली होती - रोहित गुस्ताख़
  सृजन तिथि : 4 नवम्बर, 2021
होता तेरे चेहरे का नूर, रात न फिर ये काली होती। जश्न मनाते साथ तुम्हारे, अपनी भी दीवाली होती। बैठे हैं हम मन को मार
तेरे बिना - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : मार्च, 2021
तेरे बिना रो पड़ता हूँ तुझे राज़ी करने के लिए, तेरे बिना जीवन मानिंद जहन्नुम हैं। तू नहीं तो जीवन का हर सुख दुःख हैं।
मुकम्मल जहान हैं - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : 27 फ़रवरी, 2019
मेहमाँ तिरे आने से जीवन में आया मिठास हैं, ये शादी का लड्डू जीवन में लाया उल्लास हैं। कहते हैं ये लड्डू जो खाए वो पछ
मौत का तांडव - सुषमा दीक्षित शुक्ला
  सृजन तिथि : 1 अप्रैल, 2020
दिख रहा मौत का कैसा तांडव, हाय ये किसने क़यामत ढाया। बेबसी क्यूँ कर दी कुदरत तूने, हाय कैसा ये कैसा क़हर छाया। मौत क
कर्मवीर मास्टर - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : 15 जनवरी, 2020
मिरी मसर्रतों से गुफ़्तगू कर ज़ीस्त ने कुछ यूँ फ़रमाया हैं, ज्ञानमन्दिर में आकर हयात ने हयात को गले लगाया हैं। सोहबत
मोगरे का फूल - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : 28 अप्रैल, 2021
चश्म-ओ-गोश के तट पे चिड़िया चहचहाने आई, रिज़्क़ लाज़िम हैं, उठ ना, बख़्त कहता है। अब तक ना सजी मिरी सुब्ह-ओ-जीस्त, बग़ैर ति
मेरा मुस्तक़बिल नज़र आता हैं - कर्मवीर सिरोवा
  सृजन तिथि : 2021
सुनकर ये मधुर धक-धक की आवाज़ ये सच मन में जागा है, हो न हो दिल रुपी सरिता में तेरे नाम का कंकड़ तसव्वुर ने फेंका है। तुम

Load More

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें