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कविता
सुना है सपने सच होते हैं
श्याम नंदन पाण्डेय 'श्यामजी'
मन की तरंगे बढ़ने दो मन पतंग सा उड़ने दो पंख तेरे अब खुलने दो भ्रम की दीवारें गिरने दो नैनो में सपने पलने दो सिंचित-प
ऐ ज़िंदगी! तू सहज या दुर्गम
श्याम नंदन पाण्डेय 'श्यामजी'
सही कहती थी अम्मा (मेरी माँ)– यूँ बात-बात पर ग़ुस्सा ठीक नहीं। इक दिन तो बढ़नी से पीटा गया। अपनी मर्ज़ी से ज़िंदगी नहीं च
स्थायित्व
श्याम नंदन पाण्डेय 'श्यामजी'
ब्रह्मांड का हर कण दूसरे कण को आकर्षित अथवा प्रतिकर्षित करता रहता है सतत… ताप, दाब और सम्बेदनाओं से प्रभावित टूट
महज़ कविता नहीं हूँ मैं
श्याम नंदन पाण्डेय 'श्यामजी'
तीर सा चुभता शब्द हूँ मैं। शब्दों में पिरोई, मोतियों का गुच्छा हूँ मैं, शब्द नहीं शब्द का सार हूँ मैं॥ कटते पेड़ों क
बुरा वक़्त
श्याम नंदन पाण्डेय 'श्यामजी'
दुखों की थी जो काली रात, हँसी के जो सूखे थे हर इक पात, मुसीबत थे घने बादल, जो कोहरा ग़म का था छाया, फिर सुबह हुई सबकी उम
चक्रव्यूह
शैलप्रिया
रोज़ उगते सूर्य के संग-साथ दिनचर्याओं में उलझ जाते हैं हम सब और एक ही लीक पर चलते होते हैं अहर्निश। गतिशील समय ठहर
तुम और तुम्हारी याद
शैलप्रिया
इंद्रधनुष के रंगों में रँगता है जब दिन, स्मृतियों में घुलती है गुलाब की गंध और खिल जाता है एक फूल तुम्हारे नाम का
सहभागिता
शैलप्रिया
यादों के ढेर, गहराती शाम, सूखी पंखड़ियों का अहसास, पियराई आँखों-सा ध्रुव तारा... इस यात्रा में बिछड़ते लोग हैं जो भट
कभी सोचा है तुमने
शैलप्रिया
बिन किए, बिन कहे बँट गई है कथा तुम्हारी और हमारी। नमी के शोषांत तक बच जाती है एक नन्हीं बूँद। कहाँ तक जाएँगे हम दल
कविता से एक अंतरंग संवाद
शैलप्रिया
मेरी अंतरंग सखी! मैं तुम्हारे साथ सैर को जाती हूँ जब भी, ख़ाली तन्हाइयों में तुम मुखर हो जाती हो। तुम्हारे संग-साथ
परेशानी
शैलप्रिया
जब टपकता है बूँद-बूँद मोती-सा पानी, कजरारे बादलों के संग उड़ता है सहेली का मन। मन की पाती लिख नहीं पाती कि अक्सर ह
शब्द
शैलप्रिया
नहीं याद आता है वह शब्द जिसे बड़ी मासूमियत से दफ़नाया था मैंने, बस, उसकी क़ब्र की जगह नहीं भूल पाई मैं। शब्द जड़ नह
पालने की हँसी
शैलप्रिया
चाँदनी के उजले फ़व्वारों-सी ख़ुशियाँ भर देती है मुझमें पालने की हँसी। यही हँसी एक दिन बन जाती है कला, और कल ढल जाए
शहर क्या होता है
शैलप्रिया
जब बनने लगा था यह नगर, चकित हुई थीं झील के गर्भ में पलती मछलियाँ। सड़कों पर उतर आया था नए वाहनों का शोर और सबके सपनो
विस्मृति
शैलप्रिया
ख़ुशनुमा दिन हथेलियों पर बो देता है काग़ज़ी फूलों का जंगल, भ्रांतियों के आकाश में कौंधती है जब बिजली, मेरे भीतर च
एक और रात
लाल्टू
दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है उसे रातें गुज़ारने की आदत हो गई है रात की मक्खियाँ रात की धूल नाक कान में से घुस ज
लोग ही चुनेंगे रंग
लाल्टू
चुप्पी के ख़िलाफ़ किसी विशेष रंग का झंडा नहीं चाहिए खड़े या बैठे भीड़ में कोई हाथ लहराता है लाल या सफ़ेद आँखें ढू
जैसे यही सच है
लाल्टू
जैसे समंदरों पार वह इंतज़ार में रहती है कि मैं फ़ोन करूँ कई बार मन करता है कि फूट पड़ूँ कि तुम्हें कभी नहीं फ़ोन करना
कविता
लाल्टू
बहुत बड़ा शहर बहुत बड़ा अँधेरा छोटा बच्चा खोया हुआ बड़ी अँधेरी भीड़ में मुझे यह सपना बार बार आता है अँधरे से एक पत
तस्वीर
लाल्टू
यह तस्वीर कभी पूरी नहीं होगी इसमें एक औरत है वह पहाड़ों की ओर जा रही है पहाड़ इतने दूर हैं कि तस्वीर पूरी नहीं हो सकती
आव्हान
सुनीता प्रशांत
“या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥” क्या आशय समझूँ मैं इसका मज़
मैं हिंदी हूँ
सुनीता प्रशांत
सबकी जानी पहचानी सबकी प्यारी अपनी अपनी भावना मैं मन की भाषा मैं जन जन की व्यक्त मैं, अभिव्यक्त मैं सार मैं, अभिसार
कृष्ण
सुनीता प्रशांत
कृष्ण तो बस कृष्ण थे सुंदर चितवन नंद नंदन थे बालक थे तो जैसे चंचल मन युवा वस्था जैसे वसुंधरा वसन स्मित हास्य हो जै
सावन
सुनीता प्रशांत
ये कौन उत्सव आया सखी री मन क्यों कर मुसकाया सखी री मेघ गरज कर मृदंग बजाते मधुकर मधुर तान सुनाते फूल ये क्यूँ सकुच
प्रिय तुम कुछ बोलो
सुनीता प्रशांत
प्रिय तुम कुछ बोलो झोली शब्दों की खोलो थाम लूँगी उन शब्दों को सजा लूँगी माथे पर सहेजूँगी जीवन भर समेट लूँगी उन्हे
ग्रीष्म ऋतु
सुनीता प्रशांत
आकाश हो गया चुप धरा ने धरा मौन मन हुआ कुछ उदास ये मौसम आया कौन हवा हो रही ऊष्ण भास्कर भी तमतमाया घने वृक्षों की डाल
अहसास
सुनीता प्रशांत
छोड़ आई जो माँ की गली वो गली गुम गई है वो राह तकती दो आँखें हमेशा के लिए बंद हो गई हैं वो मोहल्ला भी नहीं रहा वो लोग भ
उड़ो तुम लड़कियों
सुनीता प्रशांत
उड़ो तुम लड़कियों छू लो आसमान कर लो मुठ्ठी में सारा जहान तोड़ दो दीवारे जो रोकती हैं तुम्हे छोड़ दो वो बंदिशे जो ब
जंगली मन
सुनीता प्रशांत
इन हरे भरे जंगली पेड़ों जैसे मैं भी हरी भरी हो जाऊँ मनचाहा आकार ले लूँ कितनी भी बढ़ जाऊँ फैल जाऊँ दूर-दूर तक या आका
अनकही बातें
प्रवीन 'पथिक'
कभी कभी जीवन में भी कुछ ऐसा क्षण आता है, दर्द सिसकता है भीतर, मुस्कान दिखाया जाता है। मन की मायूसी का जब, चीत्कार उठत
और देखे..
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